संगीत का सबसे बड़ा ‘आवारा’।

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शंकरदास केसरीलाल से शैलेन्द्र तक की यात्रा।

शैलेंद्र का रंग सांवला था, लेकिन छंदों की तरह उनकी मुस्कान चमकदार थी.

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

‘मेरा जूता है जापानी’, ‘आज फिर जीने की’, ‘आवारा हूं’, ‘रमैया वस्तावैया’, ‘मुड मुड के ना देख मुड मुड के’ और ‘हर दिल जो प्यार करेगा’ सहित ना जाने कितने ही कालजयी गीत लिखने वाले गीतकार शैलेंद्र के गीतों को सुनते-गुनगुनाते हुए एक पूरी पीढ़ी जवान हुई है।

गीतकार शैलेंद्र का संबंध बिहार के आरा जिले के अख्तियारपुर नामक गांव से था. उनका जन्म 30, अगस्त 1923 को रावलपिंडी में हुआ,जो अब पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में है. शैलेंद्र का असली नाम शंकरदास केसरीलाल था. उनके पिता केसरीलाल ब्रिटिश मिलिट्री हॉस्पिटल में ठेकेदार थे. अपने गांव में शैलेंद्र ज्यादा समय तक नही रहे. पढ़ाई के सिलसिले में मथुरा चले आए. आर्थिक स्थिति जर्जर होने के कारण पढ़ाई पूरी होने के बाद शैलेंद्र ने मुंबई का रुख किया और रेलवे में अपरेंटिस के तौर पर काम करने लगे।

मुंबई में शैलेंद्र को जब भी समय मिलता वे प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यालय में अपना समय बिताते. उनका परिचय राजकपूर से यहीं पर हुआ था. राजकपूर ने उन्हें अपने फिल्मों में लिखने का प्रस्ताव दिया. पहले तो शैलेंद्र ने मना कर दिया, लेकिन आर्थिक स्थिति अच्छी न होने की वजह से वे फिल्मों में लिखने को मान गए।

उर्दू के कवि अल्लामा इकबाल की पंक्तियां हैं ‘दिल से जो बात निकलती, असर करती है.’ गीतकार और कवि शैलेंद्र पर यह पंक्तियां एकदम सटीक बैठती हैं. जब उन्होंने लिखा- ‘दिल का हाल सुने दिलवाला’ (जिसके पास दिल है वहीं दूसरे के दिल का हाल समझ सकता है) सांसारिक जीवन में व्यक्ति अनेक भावनाओं के बीच उलझा रहता है, या जिन्हें जीवन में अनेक दुखों का सामना करना पड़ता है।

हॉकी खेलने के दौरान किसी ने उनपर जाति सूचक टिप्पणी कर दी थी, जिससे गुस्सा होकर उन्होंने हॉकी स्टिक तोड़ दी. और हॉकी कभी न खेलने की कसम खाई. अपने दर्द को भूलने के लिए शैलेंद्र कविता की शरण में जाते हैं. वो लिखते हैं- ‘तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत पर यकीन रख,अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर.’ बेल्डिंग मशीन के कर्कश ध्वनि में भी उनका कवि मन जिंदगी की जीत पर यकीन रखता है।

उस समय देश में नए मूल्य स्थापित हो रहे थे. भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी की सांस्कृतिक शाखा- प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन और इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन में शामिल होने के बाद उन्होंने खुद को सही जगह पर पाया. अध्यात्म के अमूर्त खोज के बजाय वो मानव में ईश्वरीय मूल्यों का विकास चाहते थे. शैलेंद्र की कविताएं और गीत इस बात की तस्दीक करते हैं।

यहां एक गीत का उल्लेख करना जरूरी है, फिल्म गाइड का एक गीत है- ‘आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है’ यह एक ऐसी महिला के मन का चित्रण है जो अपनी शादी से नाखुश है. जीवन से निराश है. यह गीत उसकी भावनाओं को व्यक्त करता है, जो प्रतिगामी सामाजिक रीती-रिवाज को चुनौती देती है।

एक वार्ता में कमलेश पांडे ने कहा था कि इस गीत को भारतीय महिलाओं को अपना नेशनल एंथम बना लेना चाहिए.

शैलेंद्र हिंदी, भोजपुरी, उर्दू बोली के क्षेत्र से जुड़े थे यह उनके गीतों में भी झलकता है-पान खाए सैंया हमारे!चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया!सजनवा बैरी हो गए हमार!अब के बरस भैया को भेजो!

ये गीत भोजपुरी की मिठास हमारे मन में घोल देते हैं.

शैलेंद्र को अपने गीतों से वैश्विक ख्याति भी मिलती है. उनके गीत सोवियत संघ और यूरोप में काफी लोकप्रिय रहे. ‘आवारा हूं’ फिल्म का गीत “आवारा हूं” अपने ही नहीं आज के समय का भी बहुत पॉपुलर गीत है.

नोबल पुरस्कार विजेता और रूसी लेखक अलेक्जेंडर सोल्जेनित्सिन की पुस्तक ‘द कैंसर वार्ड’ में इस गीत का उल्लेख है. पुस्तक में एक हॉस्पिटल के कैंसर वार्ड का दृश्य है. इसमें एक नर्स कैंसर मरीज के दर्द को कम करने के लिए ‘आवार हूं’ गाना गाती है.

राजकपूर की हिट मूवी ‘श्री 420’ का गीत ‘मेरा जूता है जापानी’ ने मिसिसिपी मसाला (Mississippi Masala) में अपनी जगह बनाई. यह गीत नए स्वतंत्र भारत का प्रतिनिधित्व करता है, जो अनेक देशों की संस्कृति को जरूर अपनाता है, लेकिन दिल फिर भी हिंदुस्तानी है।

शैलेंद्र गीतकार पीढ़ियों को प्रेरित करते रहे हैं. गुलज़ार ने हिंदी साहित्यिक पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ के जून, 2011 के अंक में छपे इस लेख में शैलेंद्र का चित्र बनाया है, “उनका रंग सांवला था और उनके छंदों की तरह उनकी मुस्कान भी चमकदार थी.”

शैलेंद्र के साथ अपने जुड़ाव पर गुलज़ार कहते हैं- “शैलेंद्र ने फिल्म ‘बंदिनी’ में अपने साथ ‘मेरा गोरा रंग लेइले’ गीत लिखने की जगह दी थी. उन्होंने मुझे वापस आने तक सीट तक बने रहने को कहा. वे वापस तो आए फिर चले गए. मैं वहीं खड़ा रहा. शैलेंद्र की सीट खाली थी. शैलेंद्र की सीट पर बैठने की हिम्मत किसी में नही थी।”

शैलेंद्र की मृत्यु महज 43 वर्ष की आयु में हो गई थी. शैलेंद्र की मृत्यु एक निर्माता के रूप में उनकी पहली फिल्म ‘तीसरी कसम’ के रिलीज के समय हुई थी. उस समय यह फिल्म फ्लॉप साबित हुई थी. लेकिन मृत्यु के लगभग 20 साल बाद यही फिल्म कल्ट क्लासिक बन गई.

शैलेंद्र ने हिंदी फिल्मों को एक से बढ़कर एक शानदार गीत दिए. इनमें सुहाना सफर और ये मौसम (मधुमति), चलत मुसाफिर मोह लिया रे (तीसरी कसम), ये मेरा दीवानापन है (यहूदी), दिल का हाल सुने दिलवाला (श्री 420), तू प्यार का सागर है (चोरी चोरी), ये रात भीगी-भीगी (सीमा), पान खाए सैंया हमार (तीसरी कसम), आ जा आई बहार (राजकुमार), चढ़ गया पापी बिछुआ (मधुमति), आवारा हूं (आवारा), मेरा जूता है जापानी (श्री 420), आज फिर जीने की तमन्ना है (गाइड), पिया तोसे नैना लागे (गाइड), दिल की नज़र से (अनाड़ी), खोया खोया चांद (काला बाजारी), प्यार हुआ इकरार हुआ (श्री 420), अजीब दास्तान है ये (दिल अपना प्रीत पराई) आदि सदाबहार लोकप्रिय और हिट गीत शामिल हैं।

शैलेंद्र की जन्मशती के अवसर पर एक समारोह में उनकी बेटी अमला मजूमदार ने कहा कि “तीसरी कसम के आर्थिक निवेश ने बाबा की जान नहीं ली बल्कि उनके मित्रों, परिचितों के निवेश ने उनकी हत्या कर दी।

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