“मुरादों के ऊपर दौड़ने वाली ट्रेन बाजार फ़िल्म की त्रासदी है।”-प्रो. चंद्रकला त्रिपाठी

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

साहित्य,कला एवं संस्कृति के मंच ‘कस्तूरी’ के तत्वावधान में फ़िल्म परिचर्चा का आयोजन किया गया। ‘कुछ पाकर खोना है कुछ खोकर पाना है: फिल्में जो सहेजनी हैं’ श्रृंखला के अन्तर्गत सागर सरहदी के निर्देशन में बनी फिल्म ‘बाज़ार'(1982) परिचर्चा के केन्द्र में थी। परिचर्चा में प्रो.चंद्रकला त्रिपाठी(वरिष्ठ साहित्यकार), प्रो.संतोष गोयल(साहित्यकार), रश्मि रविजा(कथाकार) एवं डॉ. राजीव रंजन प्रसाद(कला समीक्षक) के विचारों को सुनने का अवसर मिला।
प्रो.संतोष गोयल ने बाजार और पितृसत्ता के बीच पिसने वाली स्त्री की पीड़ा को वक्तव्य के केन्द्र में रखा। प्रो.गोयल ने कहा कि, औरत और मर्द के बीच लड़ाई तैयार करने वाली मानसिकता आज भी ज्यों की त्यों है। जागरण की बात करने वाली फिल्म बाजार उस हाथ को आसमान तक ले जाने की कोशिश करती है जिसे हमने कैद कर रखा है। आज अर्थप्रधान युग में पैसा खुदा है और मुक्ति की चाह में रेस का हिस्सा बनने वाली स्त्री और कमजोर होती जा रही है।

रश्मि रविजा(कथाकार) ने कहा कि, बाजार फ़िल्म पैसों और प्रसिद्धि से अलग अर्थ को सहेजने वाली फिल्म है। सागर सरहदी ने इस फ़िल्म के माध्यम से गहरे उतरने की कोशिश की है। ‘घर से बेघर कर देने की साज़िश’ और ‘घर से बेघर हो जाने की पीड़ा’ सागर सरहदी को बेचैन करती है। औरत के नौकरी करने को तौहीनी समझने वाला ‘सभ्य समाज’ बाजार में बिकने की पीड़ा को कहीं से भी गलत नहीं समझता। बहुत सी ज़िन्दगियों के सच से ‘शबनम’ और ‘नजमा’ का सच आ मिला है। मुक्ति सिर्फ ‘शबनम’ और ‘नजमा’ की चाह नहीं है बल्कि असंख्य आवाजें हैं जो हमसे कुछ कहना चाह रही हैं। त्रासदी के बीच खूबसूरत प्रेम कहानी का जन्म
दिल को सुकून देता है लेकिन फ़िल्म का अन्त बाजार में मृत्यु की ओर ढकेल दी गयी स्त्री के क्रूर सच से भी हमें मिलाता है।

संवाद,गीत-संगीत, दृश्यांकन,फ़िल्मांकन, अभिनय आदि सभी रूपों की चर्चा करते हुए रश्मि रविजा ने विस्तृत फ़लक पर फ़िल्म को देखने का संकेत दिया।
प्रो.चंद्रकला त्रिपाठी(वरिष्ठ साहित्यकार) ने कला की चुनौतियों एवं उसे स्वीकार करने के गहन अवबोध के परिप्रेक्ष्य में फ़िल्म की व्याख्या की। प्रो.त्रिपाठी ने कहा कि, सागर सरहदी का व्यक्तित्व संवेदनशीलता एवं जवाबदेही में ढला व्यक्तित्व है। चरित्रों की मजबूरियों एवं उनके सपनों को आसमान देने वाली फिल्म ‘बाज़ार’ है।

चमड़ी को छू लेने वाली पीड़ा फ़िल्म का मुख्य स्वर है। बाज़ार,नीलामी,बोली यह सब मिलकर ‘शबनम’ को सूली पर टांग देते हैं। जो स्त्री के चारो ओर तैयार की गयी ठोस दीवार का सूचक है। फ़िल्म में दौड़ने वाली ट्रेन मुरादों के ऊपर दौड़ने वाली ट्रेन है। जिसमें यात्रा करता हर मन कह उठता है, ‘करोगे याद तो हर बात याद आयेगी।’
प्रकाश, परिवेश,पटकथा,दृश्य,संवाद सबकुछ मिलकर कहानी को मुकम्मल बनाते हैं। बाजार फ़िल्म इसका जीवित रूप है।
कार्यक्रम का संचालन रश्मि सिंह(साहित्य अध्येता) ने किया।

आभार-रश्मि सिंह

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