भारत में ऐसे मीर जाफर हैं, जो ब्रिटिश हितों का पोषण करते हैं,कैसे?

भारत में ऐसे मीर जाफर हैं, जो ब्रिटिश हितों का पोषण करते हैं,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारत के चंद्रयान-3 की सफल सॉफ्ट लैंडिंग की पूरी दुनिया में व्यापक पैमाने पर सराहना की गई है। लेकिन हर कोई इससे प्रसन्न नहीं है। जहां सीएनएन और बीबीसी ने लैंडिंग का सजीव प्रसारण किया, वहीं दोनों ने ही भारत को चंद्रमा पर रोवर भेजने वाला दुनिया का चौथा देश बताया।

सोशल मीडिया पर खासी आलोचना के बाद दोनों ने एक घंटे बाद स्वीकारा कि भारत चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर रोवर की सॉफ्ट लैंडिंग करने वाला दुनिया का पहला देश है। चंद्रमा का दक्षिणी ध्रुव रूखे धरातल और गहरे क्रेटरों से भरा अपरिचित और अंधकारपूर्ण इलाका है। इससे पूर्व अमेरिका, चीन और सोवियत संघ द्वारा चंद्रमा पर भेजे गए तमाम मिशन उसकी भूमध्य रेखा के निकट लैंड हुए थे।

भारत की सफलता पर पश्चिमी मीडिया के एक हिस्से- विशेषकर एंग्लो सैक्सन और ब्रिटिश मीडिया ने रोषपूर्ण प्रतिक्रिया दी। उनके ट्वीट्स- जिनमें ब्रिटेन के जीबी नेटवर्क के अग्रणी टीवी प्रस्तोता पैट्रिक क्रिस्टीज़ भी शामिल हैं- से नस्लवादी पूर्वग्रह से ग्रस्त खीझ झलकी है।

एक टीवी पत्रकार सोफी कोर्कोरान ने ट्वीट किया कि जब भारत चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सॉफ्ट लैंडिंग में सक्षम है तो फिर हमने उसे 33.4 मिलियन पाउंड की विदेशी मदद क्यों दी, जिसे कि 2024-25 में बढ़ाकर 57 मिलियन पाउंड किया जाना है? इस पैसे को वापस ले लेना चाहिए।

इसके प्रत्युत्तर में अनेक भारतीयों ने उन्हें जवाब दिया। एक ने कहा कि ब्रिटिश साम्राज्य ने हमसे 45 ट्रिलियन डॉलर लूट लिए और हमें गरीबी की हालत में छोड़ दिया, इसके बावजूद आज हमारी इकोनॉमी आपसे आगे निकल चुकी है। आखिर ब्रिटेन ने भारत से चुराए 45 ट्रिलियन डॉलर का क्या किया?

वास्तव में ब्रेग्जिट के बाद से ब्रिटेन का अपना कोई स्पेस प्रोग्राम नहीं है। यूरोपियन यूनियन के हिस्से के रूप में वह यूरोपियन स्पेस एजेंसी के मिशनों में हिस्सा लेता था, लेकिन अब वह दरवाजा बंद हो गया है। तो आखिर चंद्रयान पर ब्रिटिश लोगों के गुस्से का क्या कारण था, जबकि तीन अन्य बड़े अंग्रेजीभाषी देशों अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया की प्रतिक्रिया इसकी तुलना में संतुलित आई है?

वास्तव में ब्रिटेन अपने औपनिवेशिक इतिहास से उबर नहीं पाया है। 2015 में डॉ. शशि थरूर ने ऑक्सफोर्ड यूनियन में अपनी स्पीच के दौरान ब्रिटिश साम्राज्य के द्वारा भारत की लूट के बारे में विस्तार से बताया था। इसके बाद उन्होंने 2017 में एक बेस्टसेलिंग किताब लिखी- ‘द इनग्लोरियस एम्पायर’। इसमें उन्होंने 1757 से 1947 के दरमियान अंग्रेजों के द्वारा भारत की लूट-खसोट करके स्वयं को अमीर बनाने पर विस्तार से लिखा था।

2018 में सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ. उत्स पटनायक ने न्यूयॉर्क की कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के लिए एक पेपर लिखते हुए यह आकलन लगाया था कि ब्रिटिशों ने भारत से दो सौ साल के औपनिवेशिक राज में जितनी सम्पत्ति लूटी थी, उसे अगर आज के मूल्यों में तौला जाए तो वह 45 ट्रिलियन डॉलर के बराबर होगी।

उन्होंने कहा कि इसके लिए भारत को ब्रिटिशों से मुआवजे की मांग करनी चाहिए। इसके एक साल बाद ही यानी 2019 में ब्रिटेन की कॉटेज-इंडस्ट्री अपने देश का बचाव करने उठ खड़ी हुई। उसने इस दावे का खंडन किया कि औपनिवेशिक-अनुभव से ब्रिटिश कॉलोनियों को नुकसान हुआ था।

औपनिवेशिकता का बचाव करने वाले नीआल फर्ग्युसन जैसे इतिहासकारों के समर्थन से एक वेबसाइट भी बनाई गई। इसे नाम दिया गया- ‘हिस्ट्री रीक्लेम्ड।’ एक अमेरिकी प्रीस्ट नाइजेल बिगर ने तो ब्रिटिश औपनिवेशिकता के समर्थन में एक किताब भी लिख डाली, जिसका शीर्षक था : ‘कलोनियलिज्म, अ मोरल रेकनिंग।’ ‘हिस्ट्री रीक्लेम्ड’ साइट पर भारतीय-मूल के एक अर्थशास्त्री तीर्थंकर रॉय ने भी ब्रिटिश साम्राज्य का बचाव किया।

लेकिन बर्तानवियों के द्वारा भारत में की गई लूट-खसोट का हवाला देने पर अंग्रेजों को इसलिए गुस्सा आता है, क्योंकि एक दशक पूर्व तक यही माना जाता था कि ब्रिटिश साम्राज्य अपने उपनिवेशों के प्रति उदारतापूर्ण व्यवहार करता था। एक सर्वेक्षण में 50 प्रतिशत से अधिक अंग्रेजों ने भी इसी बात को माना। लेकिन हाल के सालों में इस मिथक को ध्वस्त कर दिया गया है।

पिछले साल जब भारत ब्रिटेन की जीडीपी को पीछे करके दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया तो अंग्रेजों का गुस्सा और बढ़ा, जो अब चंद्रयान पर निकल रहा है। इस मिशन की सफलता यह बताती है कि ब्रिटिश-राज ने भारत को आर्थिक और तकनीकी रूप से पीछे रखा था और आजाद होते ही अब वह अपनी पूर्ण सम्भावनाओं को अर्जित करने की राह पर अग्रसर है।

भारत तब गुलाम बना था, जब मीर जाफर ने 1757 में प्लासी की लड़ाई में अंग्रेजों का साथ दिया था। आज भी भारत में ऐसे अनेक मीर जाफर छुपे बैठे हैं, जो ब्रिटिश हितों का पोषण करते हैं। लेकिन अब उनकी नहीं चलने वाली।

 

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