राष्ट्रवाद के सहारे पेट नहीं भरता,आम आदमी को राहत देनी होगी.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

चुनाव से चंद महीने पहले ही जिस प्रकार तृणमूल से कई दिग्गज नेता एक-एक कर भाजपा का दामन थामने लगे थे और भाजपा द्वारा इस राज्य को फतेह करने के लिए जिस तरह का एड़ी-चोटी का जोर लगाया गया था, उसे देखते हुए कुछ राजनीतिक पंडित मानने भी लगे थे कि भाजपा पश्चिम बंगाल से तृणमूल को सत्ता से बेदखल कर सकती है लेकिन भाजपा का अति आत्मविश्वास ही उसे ले डूबा। उसने पश्चिम बंगाल के मूल चरित्र को समझने में भारी भूल की। इसके अलावा पिछले साल कोरोना प्रकोप शुरू होने के बाद से पहले ही अपनी आय का स्रोत गंवा चुके आमजन जिस प्रकार मोदी सरकार की नीतियों के कारण निरन्तर महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी के शिकार हो रहे थे, वह भी भाजपा की उम्मीदों पर बहुत भारी पड़ा।

काम-धंधे ठप्प हो जाने की वजह से पहले ही त्राहि-त्राहि कर रही जनता पर जिस तरीके से केन्द्र सरकार लगातार पेट्रोल-डीजल, रसोई गैस जैसी जनसाधारण से जुड़ी महत्वपूर्ण चीजों के दाम बढ़ाकर अपने खजाने भरने में जुटी थी, उसने आम जनता के जख्मों पर मरहम लगाने की बजाय उन्हें कुरेदने का ही काम किया। प्रधानमंत्री जैसे शीर्ष संवैधानिक पद पर विराजमान नरेन्द्र मोदी सहित तमाम शीर्ष भााजपाई नेताओं द्वारा ममता बनर्जी के लिए हर छोटी-बड़ी सभा में ‘दीदी ओ दीदी’ जैसा संबोधन और कोरोना काल में भी लाखों की भीड़ जुटा-जुटाकर क्रूर और स्तरहीन आक्रामक प्रचार बंगाल की जनता को रास नहीं आया। भाजपा के ‘जय श्रीराम’ के प्रत्युत्तर में ममता ने ‘चंडी पाठ’ किया और ‘बांग्ला विरुद्ध बाहरी’ का नारा देकर मतों के ध्रुवीकरण को अपने पक्ष में करने में कामयाब रहीं।

भाजपा के पास प्रदेश में स्थानीय स्तर पर ममता बनर्जी जैसी धाकड़ नेता के कद का मुकाबला करने के लिए कोई दमदार चेहरा नहीं था। स्थानीय चेहरे की कमी के अलावा तृणमूल को तोड़कर भाजपा को तृणमूल की ही दूसरी टीम बनाना भी भाजपा के लिए नुकसानदायक साबित हुआ क्योंकि इससे यही संदेश गया कि भाजपा के पास सशक्त नेताओं की कमी है, इसीलिए वह दूसरे दलों से उनके बड़े नेताओं को तोड़ रही है। चुनाव से ठीक पहले पाला बदलने वाले शुभेंदु अधिकारी सहित ऐसे ही कुछ दिग्गज नेता भी भाजपा की नैया पार लगाने में मददगार साबित नहीं हो सके।

एक ओर जहां ममता अपने पैर में चढ़े प्लास्टर के जरिये मतदाताओं की सहानुभूति को वोटों में तब्दील करने में सफल रहीं, वहीं राज्य की महिला मतदाताओं को यह समझाने में भी काफी हद तक सफल रहीं कि उनकी महिला मुख्यमंत्री को भाजपा के शीर्ष नेताओं द्वारा आपत्तिजनक टिप्पणियां कर निशाना बनाया जा रहा है। जहां प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, भाजपाध्यक्ष सहित भाजपा के कई मंत्री, मुख्यमंत्री पश्चिम बंगाल में ताबड़तोड़ हवाई दौरे कर बड़ी-बड़ी रैलियां और रोड़ शो करते रहे, वहीं ममता ने पूरे चुनाव में व्हीलचेयर के जरिये प्रचार करते हुए जमकर सहानुभूति बटोरी। राज्य में करीब 26 फीसदी मुस्लिम वोट हैं और तृणमूल को करीब 48 फीसदी वोट मिले हैं यानी अगर हम यह मानकर चलें कि तमाम मुस्लिम वोट तृणमूल की झोली में गए हैं तो भी करीब 22 फीसदी हिन्दुओं ने भी तृणमूल के साथ जाना पसंद किया।

2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 40.3 फीसदी वोट मिले थे लेकिन तूफानी प्रचार और सारी ताकत पश्चिम बंगाल में झोंक देने के बाद भी इस बार उसका मत प्रतिशत थोड़ा नीचे गिरकर 38.13 फीसदी रहा और वह उतनी सीटों पर भी नहीं जीत सकी, जितनी विधानससभा सीटों पर उसे लोकसभा चुनाव में बढ़त मिली थी। एक ओर जहां पश्चिम बंगाल में भाजपा की ताकत पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले बढ़ी है, वहीं तृणमूल की ताकत में भी काफी बढ़ोतरी हुई है लेकिन इसी के साथ वाम दलों और कांग्रेस की स्थिति काफी बदतर हो गई है।

तृणमूल कांग्रेस को 2011 के विधानसभा चुनाव में 38.9 और 2016 में 45.6 फीसदी मत हासिल हुए थे। हालांकि 2019 के लोकसभा चुनाव में 2.3 फीसदी के नुकसान के साथ उसे 43.3 फीसदी मत मिले थे लेकिन अब वह 47.94 फीसदी मत बटोर कर रिकॉर्ड बहुमत के साथ लगातार तीसरी बार सत्ता में लौटी है। अगर वामदलों की बात करें तो उन्हें 2011 में 41.1, 2014 में 29.9, 2016 में 26.6 तथा 2019 के लोकसभा चुनावों में महज 7.5 फीसदी मत हासिल हुए थे लेकिन अब वे महज 5 फीसदी मतों पर सिमट गए हैं। कांग्रेस को 2011 में 9.1, 2014 में 9.7, 2016 में 12.4 तथा 2019 में 5.6 फीसदी मत मिले थे किन्तु अब वह करीब तीन फीसदी मत ही प्राप्त कर सकी है। चुनाव परिणामों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि बंगाल की जनता प्रदेश में सिर्फ दो विचारधारा को ही जीवित रखना चाहती है और संभवतः इसीलिए उसने तीन दशकों तक पश्चिम बंगाल में सत्तासीन रहे वामदलों के अलावा कांग्रेस को भी लगभग नकार दिया है।

बहरहाल, ममता बनर्जी भाजपा के हिन्दुत्व के खिलाफ सही मायनों में बंगाली उपराष्ट्रवाद को भुनाने में सफल रहीं। दरअसल माना जाता है कि बंगाली लोग बाकी सब कुछ सहन कर सकते हैं लेकिन अपनी संस्कृति और अस्मिता पर वार नहीं और बंगाली संस्कृति तथा अस्मिता पर प्रहार के नाम पर बंगाली मतदाता तृणमूल की तरफ एकजुट हुए। पश्चिम बंगाल में तीसरी पारी खेलने जा रहीं ममता हालांकि प्रतिपक्ष का राष्ट्रीय चेहरा बनकर उभरी हैं और संभव है कि देशभर में उन्हें अब संयुक्त विपक्ष के मुखर स्वर के रूप में भी देखा जाने लगे लेकिन इस संभावना को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि उनके लिए राज्य में भाजपा की बढ़ती ताकत के चलते आने वाले समय में चुनौतियां भी बहुत बढ़ने वाली हैं।

दूसरी ओर 200 पार का नारा देकर बेहद आक्रामक, धारदार और उत्तेजक तरीके से चुनाव लड़ने वाली भाजपा के लिए 80 से भी कम सीटों पर सिमटना उसकी महत्वाकांक्षाओं को बड़ा झटका है क्योंकि यह उसके लिए आने वाले दिनों में कई मुश्किलें पैदा कर सकता है। कयास लगाए जा रहे थे कि पश्चिम बंगाल जीतने के बाद भाजपा छह महीनों से चल रहे किसान आन्दोलन को कुचलने में देर नहीं लगाएगी लेकिन इस हार के बाद इस आन्दोलन को कुचलना अब भाजपा के लिए आसान नहीं होगा। कुल मिलाकर पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजे भाजपा के लिए बहुत बड़ा सबक हैं। उसे इन नतीजों से सबक लेना चाहिए और अपनी चुनावी रणनीति बदलते हुए उसे सोच के इस दायरे से बाहर निकलना होगा कि केवल केन्द्रीय ताकत के बल पर ही क्षेत्रीय दलों को हराया जा सकता है। मौजूदा चुनावी नतीजों से सबक लेते हुए उसे केवल राष्ट्रवाद जैसे मुद्दों के सहारे लोगों का पेट भरने की कोशिशों की बजाय जमीनी धरातल पर देश की जनता के लिए यथार्थ में कुछ करके दिखाना होगा।

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